सादर चरन सरोज पखारे
करि पूजा मुनि सुजस बखानी
नाथ एक संसउ बड़ मोरें
संत कहहि असि नीति प्रभु
होइ न बिमल बिबेक उर
अस बिचारि प्रगटउँ निज मोहू
राम नाम कर अमित प्रभावा
आकर चारि जीव जग अहहीं
सोपि राम महिमा मुनिराया
एक राम अवधेस कुमारा
नारि बिरहँ दुखु लहेउ अपारा भयहु रोषु रन रावनु मारा
प्रभु सोइ राम कि अपर कोउ जाहि जपत त्रिपुरारि
सत्यधाम सर्बग्य तुम्ह कहहु बिबेकु बिचारि
जैसे मिटै मोर भ्रम भारी
जागबलिक बोले मुसुकाई
राममगत तुम्ह मन क्रम बानी चतुराई तुम्हारि मैं जानी
चाहहु सुनै राम गुन गूढ़ा कीन्हिहु प्रस्न मनहुँ अति मूढ़ा
भयउ समय जेहि हेतु जेहि सुनु मुनि मिटिहि बिषाद
जौं मो पर प्रसन्न सुखरासी-जानिअ सत्य मोहि निज दासी, तौं प्रभु हरहु मोर अग्याना-कहि रघुनाथ कथा बिधि नाना
प्रभु जे मुनि परमारथबादी- कहहिं राम कहुँ ब्रह्म अनादी, सेस सारदा बेद पुराना- सकल करहिं रघुपति गुन गाना
तुम्ह पुनि राम राम दिन राती- सादर जपहु अनँग आराती, रामु सो अवध नृपति सुत सोई- की अज अगुन अलखगति कोई
जौं नृप तनय त ब्रह्म किमि नारि बिरहँ मति भोरि, देख चरित महिमा सुनत भ्रमति बुद्धि अति मोरि
जौं अनीह ब्यापक बिभु कोऊ।-कबहु बुझाइ नाथ मोहि सोऊ, अग्य जानि रिस उर जनि धरहू- जेहि बिधि मोह मिटै सोइ करहू
मै बन दीखि राम प्रभुताई- अति भय बिकल न तुम्हहि सुनाई, तदपि मलिन मन बोधु न आवा-सो फलु भली भाँति हम पाव
अजहूँ कछु संसउ मन मोरे- करहु कृपा बिनवउँ कर जोरें, प्रभु तब मोहि बहु भाँति प्रबोधा- नाथ सो समुझि करहु जनि क्रोधा
तब कर अस बिमोह अब नाहीं- रामकथा पर रुचि मन माहीं, कहहु पुनीत राम गुन गाथा- भुजगराज भूषन सुरनाथा
बंदउ पद धरि धरनि सिरु बिनय करउँ कर जोरि-बरनहु रघुबर बिसद जसु श्रुति सिद्धांत निचोरि
अति आरति पूछउँ सुरराया- रघुपति कथा कहहु करि दाया, प्रथम सो कारन कहहु बिचारी- निर्गुन ब्रह्म सगुन बपु धारी
पुनि प्रभु कहहु राम अवतारा- बालचरित पुनि कहहु उदारा, कहहु जथा जानकी बिबाहीं- राज तजा सो दूषन काहीं, बन बसि कीन्हे चरित अपारा- कहहु नाथ जिमि रावन मारा, राज बैठि कीन्हीं बहु लीला- सकल कहहु संकर सुखलीला
बहुरि कहहु करुनायतन कीन्ह जो अचरज राम-प्रजा सहित रघुबंसमनि किमि गवने निज धाम
पुनि प्रभु कहहु सो तत्व बखानी- जेहिं बिग्यान मगन मुनि ग्यानी, भगति ग्यान बिग्यान बिरागा- पुनि सब बरनहु सहित बिभागा
Goddess Parvati_
My Lord, you are all-powerful, all-wise, and blissful,
You are a repository of all arts and virtues and a storehouse of Yoga, wisdom, and dispassion,
Your name is the wish-yielding tree as it were to the suppliant,
O blissful Lord, if you are pleased with me and know me to be your servant then, my master,
Disperse my ignorance by repeating to me the various stories of the Lord of Raghus,
Why should he who has his abode beneath a w wish-yielding tree undergo the suffering born of want,
Bearing this in mind, O Lord, with the crescent on the forehead, dispel the great confusion of my mind,
O Lord, the sages who discourse on the supreme reality speaks Rama as Brahma who has no beginning,
Sesa and Sarada, as well as the Vedas and the Puranas, all sing praises of the lord of Raghus,
You too, subduer of love, reverently repeat the word RAMA night and day,
Is this Rama is the same as the son of the king of Ayodhya or some other unborn, unqualified, and imperceptible being,
IF A KING'S SON, HOW COULD HE BE BRAHMA THAT INFINITE,
IF HE WERE BRAHMA HOW COULD HIS MIND GET UNHINGED BY THE LOSS OF HIS WIFE,
WHEN I SEE HIS ACTS ON THE ONE HAND AND HEAR OF HIS GLORY, ON THE OTHER HAND, MY MIND GETS UTTERLY CONFUSED,
IF, MY LORD, THERE IS ANY OTHER DESIRELESS, ALL-PERVADING, AND ALL-POWERFUL BRAHMA, INSTRUCT ME ABOUT THE SAME,
BE NOT ANGRY AT MY FOLLY BUT TAKE STEPS TO WIPE OUT MY IGNORANCE,
IN THE WOOD IN MY PREVIOUS BIRTH I WITNESSED SRI RAMA'S GLORY, THOUGH I WAS TOO AWE-STRICKEN TO TELL YOU, YET MY MIND WAS SO IMPURE THAT I DID NOT UNDERSTAND AND I REAPED A GOOD RETURN FOR MY FOLLY, SOME DOUBT STILL LINGERS IN MY MIND,
BE GRACIOUS TO ME, I IMPLORE YOU WITH JOINED PALM,
LORD, YOU INSTRUCTED ME THEN IN THE WAYS MORE THAN ONE YET I DID NOT UNDERSTAND,
DO NOT ALLOW THIS THOUGHT TO ANGER YOU,
I HAVE NO SUCH DELUSION NOW
I FIND DEVELOPED IN ME A TASTE FOR HEARING THE STORY OF SRI RAMA,
PLACING MY HEAD ON THE GROUND, I ADORE YOUR FEET AND ENTREAT YOU WITH JOINED PALMS TO RECOUNT THE UNSULLIED GLORY OF THE CHIEF OF RAGHUS, GIVING IN SUBSTANCE THE CONCLUSION OF THE REVEALED TEXTS ON THE SUBJECT,
FIRST TELL ME AFTER A MATURE THOUGHT WHAT MAKES THE UNQUALIFIED BRAHMA ASSUME A QUALIFIED FORM,
THEN RELATE SRI RAMA'S DESCENT AND NEXT HIS CHARMING PASTIME,
HOW HE WEDDED SITA AND THE FAULT FOR WHICH HE HAD TO RENOUNCE HIS FATHER'S KINGDOM LATER ON,
PERFORMED DEEDS WHILE LIVING IN THE FOREST AND HOW HE KILLED RAVANA,
THE MIRACLES WROUGHT BY RAMA
HOW THE JEWEL OF RAGHU'S LINE PROCEEDED TO HIS DIVINE ABODE ALONG WITH HIS SUBJECTS
झूठेउ सत्य जाहि बिनु जानें- जिमि भुजंग बिनु रजु पहिचानें, जेहि जानें जग जाइ हेराई- जागें जथा सपन भ्रम जाई
बंदउँ बालरूप सोई रामू-सब सिधि सुलभ जपत जिसु नामू, मंगल भवन अमंगल हारी- द्रवउ सो दसरथ अजिर बिहारी
गिरिजा सुनहु राम कै लीला। सुर हित दनुज बिमोहनसीला-रामकथा सुरधेनु सम सेवत सब सुख दानि- सतसमाज सुरलोक सब को न सुनै अस जानि
रामकथा सुंदर कर तारी- संसय बिहग उडावनिहारी, रामकथा कलि बिटप कुठारी- सादर सुनु गिरिराजकुमारी---
DUE TO LACK OF KNOWLEDGE ABOUT SRI RAMA EVEN AS THE UNREAL PASSES FOR REAL, JUST AS IGNORANCE ABOUT A ROPE LEADS US TO MISTAKEN IT FOR A SNAKE,
EVEN SO THE MOMENT WE KNOW HIM THE WORLD OF MATTER VANISHES, JUS AS THE DELUSION OF A DREAM DISAPPERS AS SOON AS WE WAKE UP,
HIM DO I REVERENCE IN THE FORM OF A CHILD,
REPETITION OF WHOSE NAME BRINGS ALL KIND OF SUCCESS WITHIN EASY REACH,
MAY THAT HOME OF BLISS AND BANE OF WOE TAKE COMPASSION ON ME, HE WHOSE SPORTS IN THE CORTYARD OF THE KING DASARATH, AFTER THUS PAYING HOMAGE TO RAMA, THE SLAYER OF THE DEMON TRIPURA JOYFULLY SPOKE IN MALLIFIOUS ACCENTS AS FOLLOW
YOU HAVE PU QUESTION TO ME WITH AN EYE TO THE GOOD OF THE WORLD
जथा अनंत राम भगवाना-तथा कथा कीरति गुन नाना----------
सगुनहि अगु नहि नहिं कछु भेदा -गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा, अगुन अरुप अलख अज जोई -भगत प्रेम बस सगुन सो होई
There is no difference between qualified Divinity and the unqualified Brahma, so declaire the sages and men of wisdom, the Vedas and Puranas, that which is attributeless and formless, imperceptible and unborn, becomes qualified under the influence of the devotee's love
जो गुन रहित सगुन सोइ कैसें-जलु हिम उपल बिलग नहिं जैसें, जासु नाम भ्रम तिमिर पतंगा- तेहि किमि कहिअ बिमोह प्रसंगा
How can the absolute become qualified_
In the same way as water and the hail stone are non different in substance, infatuation is out of question for him whose very name is like the sun to the darkness of error
राम सच्चिदानंद दिनेसा
नहिं तहँ मोह निसा लवलेसा,
सहज प्रकासरुप भगवाना
नहिं तहँ पुनि बिग्यान बिहाना,
हरष बिषाद ग्यान अग्याना
जीव धर्म अहमिति अभिमाना,
राम ब्रह्म ब्यापक जग जाना
परमानन्द परेस पुराना
Sri Rama, who is Truth, conscious, and bliss combined, is like a Sun----the night if ignorance cannot subsist in Him even to the smallest degree
Sri Rama is the Lord whose very being is light, there is no dawn of understanding in his case---For the dawn presupposes night and night there is none in the sunlight of Sri Rama,
Joy and grief, knowledge and ignorance, egotism and pride, these are the characteristics of a Jiva that finite being,
Sri Rama is all pervading Brahma,
Sri Rama is supreme bliss personified,
Sri Rama is the highest lord and the most ancient Being, the whole world knows it,
पुरुष प्रसिद्ध प्रकास निधि प्रगट परावर नाथ-रघुकुलमनि मम स्वामि कहि सिवँ नायउ माथ_________
निज भ्रम नहिं समुझहिं अग्यानी-प्रभु पर मोह धरहिं जड़ प्रानी,
बिषय करन सुर जीव समेता-
सकल एक तें एक सचेता,
सब कर परम प्रकासक जोई-
राम अनादि अवधपति सोई
जगत प्रकास्य प्रकासक रामू-
मायाधीस ग्यान गुन धामू,
जासु सत्यता तें जड माया-
भास सत्य इव मोह सहाया
एहि बिधि जग हरि आश्रित रहई-
जदपि असत्य देत दुख अहई, जौं सपनें सिर काटै कोई-बिनु जागें न दूरि दुख होई
बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना- कर बिनु करम करइ बिधि नाना, आनन रहित सकल रस भोगी-बिनु बानी बकता बड़ जोगी
तनु बिनु परस नयन बिनु देखा- ग्रहइ घ्रान बिनु बास असेषा, असि सब भाँति अलौकिक करनी-महिमा जासु जाइ नहिं बरनी
जेहि इमि गावहि बेद बुध जाहि धरहिं मुनि ध्यान-सोइ दसरथ सुत भगत हित कोसलपति भगवान
सादर सुमिरन जे नर करहीं- भव बारिधि गोपद इव तरहीं, राम सो परमातमा भवानी- तहँ भ्रम अति अबिहित तव बानी
अस संसय आनत उर माहीं -ग्यान बिराग सकल गुन जाहीं, राम ब्रह्म चिनमय अबिनासी-सर्ब रहित सब उर पुर बासी
नाथ धरेउ नरतनु केहि हेतू- मोहि समुझाइ कहहु बृषकेतू-हरि गुन नाम अपार कथा रूप अगनित अमित-मैं निज मति अनुसार कहउँ उमा सादर सुनहु
हरि अवतार हेतु जेहि होई-इदमित्थं कहि जाइ न सोई-राम अतर्क्य बुद्धि मन बानी-मत हमार अस सुनहि सयानी
जब जब होइ धरम कै हानी- बाढहिं असुर अधम अभिमानी, करहिं अनीति जाइ नहिं बरनी-सीदहिं बिप्र धेनु सुर धरनी-तब तब प्रभु धरि बिबिध सरीरा,हरहि कृपानिधि सज्जन पीरा-असुर मारि थापहिं सुरन्ह राखहिं निज श्रुति सेतु-जग बिस्तारहिं बिसद जस राम जन्म कर हेतु
सोइ जस गाइ भगत भव तरहीं-कृपासिंधु जन हित तनु धरहीं, राम जनम के हेतु अनेका-परम बिचित्र एक तें एका
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ग्यान गिरा गोतीत अज माया मन गुन पार-सोइ सच्चिदानंद घन कर नर चरित उदार
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गिरिजा सुनहु बिसद यह कथा- मैं सब कही मोरि मति जथा-
राम चरित सत कोटि अपारा- श्रुति सारदा न बरनै पारा
राम अनंत अनंत गुनानी
जन्म कर्म अनंत नामानी
जल सीकर महि रज गनि जाहीं- रघुपति चरित न बरनि सिराहीं
बिमल कथा हरि पद दायनी-भगति होइ सुनि अनपायनी
श्री राम ब्रह्म अनादि
एक बार रघुनाथ बोलाए
गुर द्विज पुरबासी सब आए
बैठे गुर मुनि अरु द्विज सज्जन
बोले बचन भगत भव भंजन
सनहु सकल पुरजन मम बानी
कहउँ न कछु ममता उर आनी
नहिं अनीति नहिं कछु प्रभुताई
सुनहु करहु जो तुम्हहि सोहाई
सोइ सेवक प्रियतम मम सोई
मम अनुसासन मानै जोई
जौं अनीति कछु भाषौं भाई
तौं मोहि बरजहु भय बिसराई
बड़ें भाग मानुष तनु पावा
सुर दुर्लभ सब ग्रंथिन्ह गावा
साधन धाम मोच्छ कर द्वारा
पाइ न जेहिं परलोक सँवारा
सो परत्र दुख पावइ सिर धुनि धुनि पछिताइ
कालहि कर्महि ईस्वरहि मिथ्या दोष लगाइ
एहि तन कर फल बिषय न भाई
स्वर्गउ स्वल्प अंत दुखदाई
नर तनु पाइ बिषयँ मन देहीं
पलटि सुधा ते सठ बिष लेहीं
ताहि कबहुँ भल कहइ न कोई
गुंजा ग्रहइ परस मनि खोई
आकर चारि लच्छ चौरासी
जोनि भ्रमत यह जिव अबिनासी
फिरत सदा माया कर प्रेरा
काल कर्म सुभाव गुन घेरा
कबहुँक करि करुना नर देही
देत ईस बिनु हेतु सनेही
नर तनु भव बारिधि कहुँ बेरो
सन्मुख मरुत अनुग्रह मेरो
करनधार सदगुर दृढ़ नावा
दुर्लभ साज सुलभ करि पावा
जो न तरै भव सागर
नर समाज अस पाइ
सो कृत निंदक मंदमति
आत्माहन गति जाइ
जौं परलोक इहाँ सुख चहहू
सुनि मम बचन ह्रृदयँ दृढ़ गहहू
सुलभ सुखद मारग यह भाई
भगति मोरि पुरान श्रुति गाई
ग्यान अगम प्रत्यूह अनेका
साधन कठिन न मन कहुँ टेका
करत कष्ट बहु पावइ कोऊ
भक्ति हीन मोहि प्रिय नहिं सोऊ
भक्ति सुतंत्र सकल सुख खानी
बिनु सतसंग न पावहिं प्रानी
पुन्य पुंज बिनु मिलहिं न संता
सतसंगति संसृति कर अंता
पुन्य एक जग महुँ नहिं दूजा
मन क्रम बचन बिप्र पद पूजा
सानुकूल तेहि पर मुनि देवा
जो तजि कपटु करइ द्विज सेवा
औरउ एक गुपुत मत सबहि कहउँ कर जोरि
संकर भजन बिना नर भगति न पावइ मोरि
कहहु भगति पथ कवन प्रयासा
जोग न मख जप तप उपवासा
सरल सुभाव न मन कुटिलाई
जथा लाभ संतोष सदाई
मोर दास कहाइ नर आसा
करइ तौ कहहु कहा बिस्वासा
बहुत कहउँ का कथा बढ़ाई
एहि आचरन बस्य मैं भाई
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उमा कहउँ मैं अनुभव अपना
सत हरि भजनु जगत सब सपना
गिरिजा संत समागम सम न लाभ कछु आन
बिनु हरि कृपा न होइ सो गावहिं बेद पुरान
सत संगति दुर्लभ संसारा
निमिष दंड भरि एकउ बारा
बारि मथें घृत होइ बरु सिकता ते बरु तेल
बिनु हरि भजन न भव तरिअ यह सिद्धांत अपेल
बिमल ग्यान जल जब सो नहाई
तब रह राम भगति उर छाई
कलिमल समन दमन मन राम सुजस सुखमूल
सादर सुनहि जे तिन्ह पर राम रहहिं अनुकूल
कठिन काल मल कोस धर्म न ग्यान न जोग जप
परिहरि सकल भरोस रामहि भजहिं ते चतुर नर
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एक बार बसिष्ट मुनि आए जहाँ राम सुखधाम सुहाए
अति आदर रघुनायक कीन्हा पद पखारि पादोदक लीन्हा
राम सुनहु मुनि कह कर जोरी कृपासिंधु बिनती कछु मोरी
देखि देखि आचरन तुम्हारा होत मोह मम हृदयँ अपारा
महिमा अमित बेद नहिं जाना मैं केहि भाँति कहउँ भगवाना
उपरोहित्य कर्म अति मंदा बेद पुरान सुमृति कर निंदा
जब न लेउँ मैं तब बिधि मोही कहा लाभ आगें सुत तोही
परमातमा ब्रह्म नर रूपा होइहि रघुकुल भूषन भूपा
तब मैं हृदयँ बिचारा जोग जग्य ब्रत दान
जा कहुँ करिअ सो पैहउँ धर्म न एहि सम आन
One day the sage Vashistha called at the palace where the charming and all-merciful Rama was, the lord of the Raghus received him with great reverence, laved his feet, and sipped the water into which they had washed
Listen, Rama, Said the sage with joined palms, I make my humble submission, O ocean of mercy, even as I watch your doings infinite bewilderment possesses my soul, Your immeasurable greatness is beyond the knowledge of the Vedas, how can I describe it,
O Almighty Lord, the vocation of a family priest is very low, The Vedas, Puranas, and the smriti texts equally denounce it when I would not accept it, Brahma, my father said to me, It will redound to your benefit hereafter, my son, Brahma itself, the supreme spirit, will appear in human semblance as a king, the ornament of Raghus' race,
Then I thought to myself, I shall attain to him who is the object of Yogic performance of sacrifices, religious vows, and charity, thus there can be no other vocation like this,
Japa that muttering of prayers, austere, penance, religious observances, Yogic practices, the performance of one's allotted duties, the various pious acts recommended by the Vedas, the cultivation of spiritual enlightenment, compassion, self-control, bathing in sacred waters, and whatever other scared practices have been advocated by the Vedas and Puranas and holy men and the recitation and hearing of various Tantra texts have only one reward, My Lord, all spiritual endeavors lead to the same glorious end that unceasing devotion to your lotus feet,
---------
धीरज धर्म मित्र अरु नारी
आपद काल परिखिअहिं चारी
आगम निगम प्रसिद्ध पुराना
सेवाधरमु कठिन जगु जाना
स्वामि धरम स्वारथहि बिरोधू
बैरु अंध प्रेमहि न प्रबोधू
--------------------
नहिं दरिद्र सम दुख जग माहीं
संत मिलन सम सुख जग नाहीं
परम धर्म श्रुति बिदित अहिंसा
पर निंदा सम अघ न गरीसा
---------------------------------------------------------------------
राम नाम मनिदीप धरु जीह देहरीं द्वार
तुलसी भीतर बाहेरहुँ जौं चाहसि उजिआर
आकर चार लाख चोरासी जाती जीव जल थल नभ वासी
सिया राम में सब जग जानी करहु प्रणाम जोरी
जढ़ चेतन जग जीव जत सकल राम मई जानी
बंदहू सब के चरण कमल सदा जोरी जग पानी
------
Life and Truth
Mystery unto spirit, illusion and the God
सुर नर मुनि सचराचर साईं
मैं पूछउँ निज प्रभु की नाई
मोहि समुझाइ कहहु सोइ देवा
सब तजि करौं चरन रज सेवा
कहहु ग्यान बिराग अरु माया
कहहु सो भगति करहु जेहिं दाया
ईस्वर जीव भेद प्रभु सकल कहौ समुझाइ
जातें होइ चरन रति सोक मोह भ्रम जाइ
थोरेहि महँ सब कहउँ बुझाई
सुनहु तात मति मन चित लाई
मैं अरु मोर तोर तैं माया
जेहिं बस कीन्हे जीव निकाया
गो गोचर जहँ लगि मन जाई
सो सब माया जानेहु भाई
तेहि कर भेद सुनहु तुम्ह सोऊ
बिद्या अपर अबिद्या दोऊ
एक दुष्ट अतिसय दुखरूपा
जा बस जीव परा भवकूपा
एक रचइ जग गुन बस जाकें
प्रभु प्रेरित नहिं निज बल ताकें
ग्यान मान जहँ एकउ नाहीं
देख ब्रह्म समान सब माही
कहिअ तात सो परम बिरागी
तृन सम सिद्धि तीनि गुन त्यागी
माया ईस न आपु कहुँ जान कहिअ सो जीव
बंध मोच्छ प्रद सर्बपर माया प्रेरक सीव
{that alone deserve to be called as individual soul, which knows not God nor one's own self-god is creator of both spirit and matter-god awards bondage and liberation according to one's desert-transcendent all and is controller of delusive power so called Maya.}
धर्म तें बिरति जोग तें ग्याना
ग्यान मोच्छप्रद बेद बखाना
जातें बेगि द्रवउँ मैं भाई
सो मम भगति भगत सुखदाई
सो सुतंत्र अवलंब न आना
तेहि आधीन ग्यान बिग्याना
भगति तात अनुपम सुखमूला
मिलइ जो संत होइँ अनुकूला
भगति कि साधन कहउँ बखानी
सुगम पंथ मोहि पावहिं प्रानी
प्रथमहिं बिप्र चरन अति प्रीती
निज निज कर्म निरत श्रुति रीती
एहि कर फल पुनि बिषय बिरागा
तब मम धर्म उपज अनुरागा
श्रवनादिक नव भक्ति दृढ़ाहीं
मम लीला रति अति मन माहीं
संत चरन पंकज अति प्रेमा
मन क्रम बचन भजन दृढ़ नेमा
गुरु पितु मातु बंधु पति देवा
सब मोहि कहँ जाने दृढ़ सेवा
मम गुन गावत पुलक सरीरा
गदगद गिरा नयन बह नीरा
काम आदि मद दंभ न जाकें
तात निरंतर बस मैं ताकें
बचन कर्म मन मोरि गति भजनु करहिं निःकाम
तिन्ह के हृदय कमल महुँ करउँ सदा बिश्राम
{I ever repose in the lotus heart of those who depend on me in thought, word and deed and who worship me in disinterested way}
Praise of kali age_
कृतजुग त्रेता द्वापर पूजा मख अरु जोग
जो गति होइ सो कलि हरि नाम ते पावहिं लोग
कलिजुग जोग न जग्य न ग्याना
एक अधार राम गुन गाना
सोइ भव तर कछु संसय नाहीं
नाम प्रताप प्रगट कलि माहीं
कलि कर एक पुनीत प्रतापा
मानस पुन्य होहिं नहिं पापा
कलिजुग सम जुग आन नहिं जौं नर कर बिस्वास
गाइ राम गुन गन बिमलँ भव तर बिनहिं प्रयास
कलिजुग सम जुग आन नहिं जौं नर कर बिस्वास
गाइ राम गुन गन बिमलँ भव तर बिनहिं प्रयास
प्रगट चारि पद धर्म के कलिल महुँ एक प्रधान
जेन केन बिधि दीन्हें दान करइ कल्यान
Glory of Lord_
हरि माया कृत दोष गुन बिनु हरि भजन न जाहिं
भजिअ राम तजि काम सब अस बिचारि मन माहिं
पाई न केहिं गति पतित पावन राम भजि सुनु सठ मना
गनिका अजामिल ब्याध गीध गजादि खल तारे घना
आभीर जमन किरात खस स्वपचादि अति अघरूप जे
कहि नाम बारक तेपि पावन होहिं राम नमामि ते
सुंदर सुजान कृपा निधान अनाथ पर कर प्रीति जो
सो एक राम अकाम हित निर्बानप्रद सम आन को
------
परहित बस जिन्ह के मन माहीँ
तिन्ह कहुँ जग दुर्लभ कछु नाहीँ
-----------
कोमल चित अति दीनदयाला
कारन बिनु रघुनाथ कृपाला
गीध अधम खग आमिष भोगी
गति दीन्हि जो जाचत जोगी
सुनहु उमा ते लोग अभागी
हरि तजि होहिं बिषय अनुरागी
Essence unto self_
Faith is the essence of devotion
Without eternal joy, content is a distant Truth
For eternal joy name of lord in faith with submission is the path
निज सुख बिनु मन होइ कि थीरा
परस कि होइ बिहीन समीरा
कवनिउ सिद्धि कि बिनु बिस्वासा
बिनु हरि भजन न भव भय नासा
बिनु बिस्वास भगति नहिं तेहि बिनु द्रवहिं न रामु
राम कृपा बिनु सपनेहुँ जीव न लह बिश्रामु
------
हिम ते अनल प्रगट बरु होई
बिमुख राम सुख पाव न कोई
बारि मथें घृत होइ बरु सिकता ते बरु तेल
बिनु हरि भजन न भव तरिअ यह सिद्धांत अपेल
मसकहि करइ बिंरंचि प्रभु अजहि मसक ते हीन
अस बिचारि तजि संसय रामहि भजहिं प्रबीन
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शान्तं शाश्वतमप्रमेयमनघं निर्वाणशान्तिप्रदंब्रह्माशम्भुफणीन्द्रसेव्यमनिशं वेदान्तवेद्यं विभुम् -रामाख्यं जगदीश्वरं सुरगुरुं मायामनुष्यं -हरिंवन्देऽहं करुणाकरं रघुवरं भूपालचूड़ामणिम्
नान्या स्पृहा रघुपते हृदयेऽस्मदीयेसत्यं वदामि च भवानखिलान्तरात्मा-भक्तिं प्रयच्छ रघुपुङ्गव निर्भरां मेकामादिदोषरहितं कुरु मानसं च
अतुलितबलधामं हेमशैलाभदेहंदनुजवनकृशानुं ज्ञानिनामग्रगण्यम्-सकलगुणनिधानं वानराणामधीशंरघुपतिप्रियभक्तं वातजातं नमामि
परमानंद कृपायतन मन परिपूरन काम- प्रेम भगति अनपायनी देहु हमहि श्रीराम
गुर पितु मातु महेस भवानी
प्रनवउँ दीनबंधु दिन दानी
प्रनवउँ पवनकुमार खल बन पावक ग्यानधन
जासु हृदय आगार बसहिं राम सर चाप धर
मंगल करनि कलि मल हरनि तुलसी कथा रघुनाथ की
राम भक्ति जहँ सुरसरि धारा
सरसइ ब्रह्म बिचार प्रचारा
बिनु सतसंग बिबेक न होई
राम कृपा बिनु सुलभ न सोई
जड़ चेतन गुन दोषमय बिस्व कीन्ह करतार-
संत हंस गुन गहहिं पय परिहरि बारि बिकार
जड़ चेतन जग जीव जत सकल राममय जानि
बंदउँ सब के पद कमल सदा जोरि जुग पानि
देव दनुज नर नाग खग प्रेत पितर गंधर्ब
बंदउँ किंनर रजनिचर कृपा करहु अब सर्ब
एक अनीह अरूप अनामा
अज सच्चिदानंद पर धामा
ब्यापक बिस्वरूप भगवाना
तेहिं धरि देह चरित कृत नाना
राम भगत हित नर तनु धारी
सहि संकट किए साधु सुखारी
---------------------
नवधा भगति
Nine streams of devotion-among them total submission{ego less} is unique
सबरी देखि राम गृहँ आए
मुनि के बचन समुझि जियँ भाए
सरसिज लोचन बाहु बिसाला
जटा मुकुट सिर उर बनमाला
स्याम गौर सुंदर दोउ भाई
सबरी परी चरन लपटाई
कंद मूल फल सुरस अति दिए राम कहुँ आनि
प्रेम सहित प्रभु खाए बारंबार बखानि
केहि बिधि अस्तुति करौ तुम्हारी
अधम जाति मैं जड़मति भारी
कह रघुपति सुनु भामिनि बाता
मानउँ एक भगति कर नाता
जाति पाँति कुल धर्म बड़ाई
धन बल परिजन गुन चतुराई
भगति हीन नर सोहइ कैसा
बिनु जल बारिद देखिअ जैसा
नवधा भगति कहउँ तोहि पाहीं
सावधान सुनु धरु मन माही
1.प्रथम भगति संतन्ह कर संगा
2.दूसरि रति मम कथा प्रसंगा
3.गुर पद पंकज सेवा तीसरि भगति अमान
4.चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान
मंत्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा
5.पंचम भजन सो बेद प्रकासा
6.छठ दम सील बिरति बहु करमा
निरत निरंतर सज्जन धरमा
7.सातवँ सम मोहि मय जग देखा
मोतें संत अधिक करि लेखा
8.आठवँ जथालाभ संतोषा
सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा
9.नवम सरल सब सन छलहीना
मम भरोस हियँ हरष न दीना
नव महुँ एकउ जिन्ह के होई
नारि पुरुष सचराचर कोई
सोइ अतिसय प्रिय भामिनि मोरे
सकल प्रकार भगति दृढ़ तोरें
जोगि बृंद दुरलभ गति जोई
तो कहुँ आजु सुलभ भइ सोई
मम दरसन फल परम अनूपा
जीव पाव निज सहज सरूपा
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Be Warn_Result of despising a saintly soul is so bad_
साधु अवग्या कर फलु ऐसा
जरइ नगर अनाथ कर जैसा
Be Warn_Despising a saintly soul immediately robs one of all blessings_
साधु अवग्या तुरत भवानी
कर कल्यान अखिल कै हानी
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Prayer_
O ocean of compassion-please bless the life with devotion that make an easy access to your lotus feet
अबिरल भगति बिसुध्द तव श्रुति पुरान जो गाव
जेहि खोजत जोगीस मुनि प्रभु प्रसाद कोउ पाव
भगत कल्पतरु प्रनत हित कृपा सिंधु सुख धाम
सोइ निज भगति मोहि प्रभु देहु दया करि राम
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सकल काम प्रद तीरथराऊ
बेद बिदित जग प्रगट प्रभाऊ
मागउँ भीख त्यागि निज धरमू
आरत काह न करइ कुकरमू
अस जियँ जानि सुजान सुदानी
सफल करहिं जग जाचक बानी
अरथ न धरम न काम रुचि गति न चहउँ निरबान
जनम जनम रति राम पद यह बरदानु न
मैं जानउँ निज नाथ सुभाऊ
अपराधिहु पर कोह न काऊ
मो पर कृपा सनेह बिसेषी
खेलत खुनिस न कबहूँ देखी
सिसुपन तेम परिहरेउँ न संगू
कबहुँ न कीन्ह मोर मन भंगू
मैं प्रभु कृपा रीति जियँ जोही
हारेहुँ खेल जितावहिं मोही
महूँ सनेह सकोच बस सनमुख कही न बैन
दरसन तृपित न आजु लगि पेम पिआसे नैन
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Communion of a Saint
सत संगति दुर्लभ संसारा
निमिष दंड भरि एकउ बारा
आजु धन्य मैं धन्य अति जद्यपि सब बिधि हीन
निज जन जानि राम मोहि संत समागम दीन
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जद्यपि सम नहिं राग न रोषू-गहहिं न पाप पूनु गुन दोषू
करम प्रधान बिस्व करि राखा-जो जस करइ सो तस फलु चाखा
तदपि करहिं सम बिषम बिहारा-भगत अभगत हृदय अनुसारा
अगुन अलेप अमान एकरस- रामु सगुन भए भगत पेम बस
राम सदा सेवक रुचि राखी-बेद पुरान साधु सुर साखी ------------
बिनु सतसंग न हरि कथा तेहि बिनु मोह न भाग
मोह गएँ बिनु राम पद होइ न दृढ़ अनुराग
मिलहिं न रघुपति बिनु अनुरागा
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राकापति षोड़स उअहिं तारागन समुदाइ
सकल गिरिन्ह दव लाइअ बिनु रबि राति न जाइ
ऐसेहिं हरि बिनु भजन खगेसा-मिटइ न जीवन्ह केर कलेसा
हरि सेवकहि न ब्याप अबिद्या- प्रभु प्रेरित ब्यापइ तेहि बिद्या
ताते नास न होइ दास कर- भेद भगति भाढ़इ बिहंगबर
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सुनु मुनि तोहि कहउँ सहरोसा-भजहिं जे मोहि तजि सकल भरोसा, करउँ सदा तिन्ह कै रखवारी- जिमि बालक राखइ महतारी
गह सिसु बच्छ अनल अहि धाई- तहँ राखइ जननी अरगाई, प्रौढ़ भएँ तेहि सुत पर माता- प्रीति करइ नहिं पाछिलि बाता
मोरे प्रौढ़ तनय सम ग्यानी- बालक सुत सम दास अमानी, जनहि मोर बल निज बल ताही- दुहु कहँ काम क्रोध रिपु आही
यह बिचारि पंडित मोहि भजहीं पाएहुँ ग्यान भगति नहिं तजहीं
काम क्रोध लोभादि मद प्रबल मोह कै धारि
तिन्ह महँ अति दारुन दुखद मायारूपी नारि
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Truth of life unto law of karma_
बोले लखन मधुर मृदु बानी-ग्यान बिराग भगति रस सानी, काहु न कोउ सुख दुख कर दाता-निज कृत करम भोग सबु भ्राता,
जोग बियोग भोग भल मंदा-हित अनहित मध्यम भ्रम फंदा, जनमु मरनु जहँ लगि जग जालू-संपती बिपति करमु अरु कालू,
धरनि धामु धनु पुर परिवारू-सरगु नरकु जहँ लगि ब्यवहारू, देखिअ सुनिअ गुनिअ मन माहीं- मोह मूल परमारथु नाहीं,
सपनें होइ भिखारि नृप रंकु नाकपति होइ, जागें लाभु न हानि कछु तिमि प्रपंच जियँ जोइ
अस बिचारि नहिं कीजअ रोसू-काहुहि बादि न देइअ दोसू, मोह निसाँ सबु सोवनिहारा-देखिअ सपन अनेक प्रकारा
एहिं जग जामिनि जागहिं जोगी-परमारथी प्रपंच बियोगी, जानिअ तबहिं जीव जग जागा-जब जब बिषय बिलास बिरागा
होइ बिबेकु मोह भ्रम भागा- तब रघुनाथ चरन अनुरागा,सखा परम परमारथु एहू-मन क्रम बचन राम पद नेहू
राम ब्रह्म परमारथ रूपा-अबिगत अलख अनादि अनूपा, सकल बिकार रहित गतभेदा- कहि नित नेति निरूपहिं बेदा
भगत भूमि भूसुर सुरभि सुर हित लागि कृपाल, करत चरित धरि मनुज तनु सुनत मिटहि जग जाल
सखा समुझि अस परिहरि मोहु- सिय रघुबीर चरन रत होहू
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Deep-rooted negative thoughts in the subconscious mind will make their presence felt time and again, sometimes even more violently and with force beyond measure, making a person helpless and the name of Sri Rama may come to rescue one from this delusion of Maya,
All desires have their root in the mind which mostly remains influenced by past and low points of counters in the sphere of eternity, not that easy to direct them to the set goal of truth but in the refuge of Sri Rama,
Most beings are bound to pitch at the sway of senses like animals but man, yet animal instinct ever remains active in man but as the man takes refuge in the name of Sri Rama attains help to recover from,
Mind is habitual of brooding over the lowly truth of Maya and putting forth self in compromising mode which creates unwanted fear and nervousness till man takes refuge in the name of Sri Rama,
Cheating and deceiving fellow beings in the world create weakness in the mind which directly relates to the truth of the memory membrane which causes many afflictions to the mind but as the man takes refuge in the name of Sri Rama,
The divine name of Sri Rama is a powerful weapon to destroy the demonic hidden entities of Maya to dislodge the truth of Jiva,
No one is competent enough to counter the enemies of the journey through mere self-effort, it needs extra pace and the name of Sri Rama may help man suitable if rely upon with faith and reverence,
Shadows of the past may accumulate undesirable impressions on the screen of the mind which may dilute the truth of the journey, meditation in truth with the name of Sri Rama may replace the bad impressions to restart the journey anew in continuity,
Soul in the embodiment of body is a Bondage,
Mind in the blending of senses and sense objects is more than bondage,
Realizing the immortal soul in the mortal body is the first milestone towards liberation, and the Name of Sri Rama may help unto the truth of the cause,
Eternal life is entirely different than worldly life, to reach this truth man needs to transcend bodily qualities even while living with, and refuge in the name of Sri Rama may be a tangible help to the subject,
The mind does need nutritious food to grow in the true spirit, Thoughts of Sri Rama and muttering the name of Sri Rama at the respective span of time act as nourishing truth for the mind,
Concentration is the yoga for the mind, meditation is a supporting factor, meditating on the child form of Sri Rama may help suitable to induce positivity within the self,
The life and teachings of Sri Rama may satisfy the inner quest of Atman to update the truth of good conduct and moral truth,
Muttering the name of Sri Rama may help to restrict the stimulate desires for worldly pleasures and redirect the mind to the truth of eternal joy,
Name of the Rama act as a true friend that disinterested friend a friend that indeed a friend in need, the very close and dear friend,
To receive divine grace Name of Sri Rama is a high frequency areal to catch the vibrant signal for the inner cause,
In the world of Maya, it is truly hard to comprehend the ignorance, not a mystery but a reality that the roots of ignorance do lies in space of eternity with the karmic truth of the individual being in truth with the province of infinity whose shadow follows for a long, but by the grace of Sri Rama sky of eternity goes clear even beyond the truth of inner vision,
The range of vision by the eyes is limited by the angle of vision and the range of intellect is much far from that yet to pick the destined abode of Jivatma hereafter, his essential truth impart extra pace to inner vision in the club with intellect to head for, and the grace of God makes it easy for spirit to track suitably,
Various kinds of beings, and among the various kinds of human beings, among them very few make it to their destined destinations back home safe by the grace of Sri Rama,
Sri Rama is not just an idol or a personification of moral truth, not just an Ideal for man or truth for worship by gods and men, ram is beyond the truth of perceptive skill of Jivatma yet one of his aspects that favorable to man and devotees is available on the planet to help Jivatma in his cause unto the truth of journey on the planet,
All the fourteen realms exist within the truth of self and man may experience their fragrance within the self by the grace of Sri Rama, they remain mystic and secret till man adores the lotus feet of Sri Rama with faith and reverence,
The purest state of creation by the providence are only spirit, light, and the Love, spirit in the light of love may relocate self in the refuge of Sri Rama,
The divine abode of Sri Rama is the highest spiritual heaven, and the path to it is spirituality, indeed the ultimate resort of Jivatma, and this addresses the most viable question of all in a journey how did we come into this present state of existence, where we have come from and where shall we go hereafter, to experience the pastime of Sri Rama on the Vasundhgara could be the cause of Jivatma after its disassociation from its prime source, through a mystic Sankalp Jivatma embodied in spirit with its desire to the respective body under the influence of Maya and is bound to be back to its pristine abode in the refuge of Sri Rama,
While amalgamation of the soul with the matter in the womb, species that are based on the womb, mind sprout in truth with the body and get many layer coverings in truth with senses and other physical limitations, in this scenario man is put to task to recall the pastime of Sri Rama to make self obliged in the pilgrimage on the planet, few by the grace of Sri Rama make it to the task and sail safe, many in other species get elevated to the truth of being a man by the generous nature of Sri Rama that to experience the truth of being self in individuality that influx of love for the lotus feet of Sri Rama,
Human beings are taken as the most highly evolved truth of creation in spirit with, indeed an opportunity for man to be back at home, but relentless struggle against the negative stream of mind makes it tough for a man to cross the channel of transmigration, but a refuge in lotus feet of Sri Rama make this tough task easy for man, indeed claw of mind and its affliction in truth with senses are like a huge mountain yet the name of Sri Rama act as a plane to bypass all hurdles of climbing upon,
The soul is a misfit in the region of the mind and it needs eternal help to accommodate self and muttering the name of Sri Rama is the path,
Sri Rama is ready to help the aspirants in their quest for truth and the cause, when devotees are ready, Sri Rama welcomes them with gracious truth to lead them from the forefront to the headway of their destine destination and ensure their safety to that shore,
Sri Rama is a true master that bestows his service to all irrespective of their race, nation, caste and creed, and social position except for special love for saintly souls and Brahmans,
Sri Rama teaches his devotees without any media, reaches out to them for help without physical entity, receives his devotees at that changeover when all left him apart,
Sri Rama in the present age is not earthly but his name and his eternal truth ever accompany his devotees in varying forms,
Devotion to the name of Sri Rama helps man to recover from the five hereditary five foes,
When the body reduces to ashes, senses cease to self and fire that cause tatva rekindling and foes of that region tries to victimize the spirit, there Sri Rama manifests to safeguard the spirit from the jaws of Ghost of Dominic strength,
The body which housed the spirit is the epitome of all creation, the heart is the core center that inbuilt temple in the inverted form of lotus to house the spirit for quest unto soul mate that none other than Rama, this body of a man is the microcosm which relates to macrocosm that truth of Sri Rama,
Man needs to maintain the sanctity of this temple through adoration of respective discipline to mark the love for the lotus feet of Brahma that Sri Rama, the truth of cosmic energy, muttering his name with faith and reverence decorates the truth of this unique temple,
Spirit is embodied in a three-tier body, the gross body which causes the death that creates a barrier in an immediate conscious state of spirit but the astral body takes the charge, and the spirit continues in with the truth of self, the astral body takes to shape a new with the region to suit the spirit and it ceases to exist without the truth of death when spirit reach at the destination that threshold of its final beatitude, here love for the lotus feet of Sri Ram makes it easy for final amalgamation with pristine universal truth,
By the grace of Lord Rama, devotees tune in to the sound current to rediscover self, through muttering the name alone they enter the region within self to hear the echo of self which leads the spirit to ascend within self to experience the glory of self in truth with devotion to the lotus feet of Sri Rama,
Rest assured unto truth which belongs to one and all
We all come from the unmanifest
We stay and continue as manifest
We go back to the unmanifest,
We all are strangers to this planet though we may have visited many times earlier rarest of rare may recall the truth of being here from the memory cord in ether,
Indeed strange to each other in the gross mode,
Life runs on the accumulated wisdom of the race in truth with Maya, a mystic potency of Sri Rama,
Man suffers the most in its journey on the planet on varying subjects pertaining to survival truth and passions till it discovers self in truth with realization and accommodates self in the light of truth which mostly manifest on the path of spirituality,
The inner reality of man is altogether different than what appears as superficial truth in the form, inner want and want to sustain differ altogether,
To comply with the truth of inner inherent want spirituality is the path,
Spirituality is a conscious communication to invoke and revoke self unto the truth of its inherent state and cult, though the heritage of all yet rarely few make it reach at,
Path of spirituality may lead aspirants to the esoteric regions within self to unlock the inherent culture intact with self, and there the experience of spirit goes above the horizon of its three known propensities in truth with body and Maya,
Daily affairs and necessities never constitute life as designated for the cause, indeed they are superficial bubbles on the surface of the water, the light of wisdom is rooted in man yet imperfection is the very nature of beings on the planet, yearning for real want may invoke self rarely when man track the path of truth by the grace of Sri Rama,
Knowledge can never be different but its experience so the truth of the cause of being the man for spirit, the affordable proposition to reach the truth of knowledge spirit in need, the grace of Sri Ram may help,
The cloud that is born of the heat from the sun may hide the sun for the time being so is the truth that the intellect that manifests from the light of self may hide the true knowledge for the short but as the dawn of the grace of Sri Rama, everything goes clear,
True knowledge is a splitter of ego, and atom to the world of spirituality, that key to the liberation, true knowledge is an aspect of truth eternal, that substratum by nature whereas falsehood based on the pitch of ego goes on in ever-changing scenarios to the truth of drowning, whereas truth is the fire that goes up by nature and helps the spirit to relocate self,
Desire nourishes the ego and cessation of desire dissolves the ego itself, with the down of the ego, the light of truth manifest in many forms, fulfillment of desire must not give rise to the sense of excitement, it must be aligned in such a pace to lead self unto the truth of content,
Be with self in silent truth to restrict the desires and pave the path to ascend within self to make it for the cause eternal,
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Features of true saints_
सुनु मुनि संतन्ह के गुन कहऊँ-जिन्ह ते मैं उन्ह कें बस रहऊँ, षट बिकार जित अनघ अकामा-अचल अकिंचन सुचि सुखधामा,
अमितबोध अनीह मितभोगी-सत्यसार कबि कोबिद जोगी, सावधान मानद मदहीना-धीर धर्म गति परम प्रबीना
गुनागार संसार दुख रहित बिगत संदेह-तजि मम चरन सरोज प्रिय तिन्ह कहुँ देह न गेह
निज गुन श्रवन सुनत सकुचाहीं-पर गुन सुनत अधिक हरषाहीं, सम सीतल नहिं त्यागहिं नीती- सरल सुभाउ सबहिं सन प्रीती
जप तप ब्रत दम संजम नेमा-गुरु गोबिंद बिप्र पद प्रेमा, श्रद्धा छमा मयत्री दाया-मुदिता मम पद प्रीति अमाया
बिरति बिबेक बिनय बिग्याना-बोध जथारथ बेद पुराना, दंभ मान मद करहिं न काऊ-भूलि न देहिं कुमारग पाऊ
गावहिं सुनहिं सदा मम लीला-हेतु रहित परहित रत सीला, मुनि सुनु साधुन्ह के गुन जेते- कहि न सकहिं सारद श्रुति तेते
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Fate of saints and the worldly men_
संत असंतन्हि कै असि करनी
जिमि कुठार चंदन आचरनी
काटइ परसु मलय सुनु भाई
निज गुन देइ सुगंध बसाई
ताते सुर सीसन्ह चढ़त जग बल्लभ श्रीखंड
अनल दाहि पीटत घनहिं परसु बदन यह दंड
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Great sage wish a boon from the lotus feet of lord that the name of lord Rama must act as bestower of wishes
तब नारद बोले हरषाई अस बर मागउँ करउँ ढिठाई, जद्यपि प्रभु के नाम अनेका-श्रुति कह अधिक एक तें एका
राम सकल नामन्ह ते अधिका- होउ नाथ अघ खग गन बधिका, एवमस्तु मुनि सन कहेउ कृपासिंधु रघुनाथ-तब नारद मन हरष अति प्रभु पद नायउ माथ
And Lord Said, Be it so_
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Rama and his heart for_
अब सुनु परम बिमल मम बानी- सत्य सुगम निगमादि बखानी, निज सिद्धांत सुनावउँ तोही- सुनु मन धरु सब तजि भजु मोही
मम माया संभव संसारा-जीव चराचर बिबिधि प्रकारा, सब मम प्रिय सब मम उपजाए- सब ते अधिक मनुज मोहि भाए
तिन्ह महँ द्विज द्विज महँ श्रुतिधारी- तिन्ह महुँ निगम धरम अनुसारी, तिन्ह महँ प्रिय बिरक्त पुनि ग्यानी- ग्यानिहु ते अति प्रिय बिग्यानी
तिन्ह ते पुनि मोहि प्रिय निज दासा- जेहि गति मोरि न दूसरि आसा, पुनि पुनि सत्य कहउँ तोहि पाहीं- मोहि सेवक सम प्रिय कोउ नाहीं
भगति हीन बिरंचि किन होई- सब जीवहु सम प्रिय मोहि सोई, भगतिवंत अति नीचउ प्रानी- मोहि प्रानप्रिय असि मम बानी
सुचि सुसील सेवक सुमति प्रिय कहु काहि न लाग, श्रुति पुरान कह नीति असि सावधान सुनु काग
एक पिता के बिपुल कुमारा- होहिं पृथक गुन सील अचारा, कोउ पंडिंत कोउ तापस ग्याता- कोउ धनवंत सूर कोउ दाता
कोउ सर्बग्य धर्मरत कोई- सब पर पितहि प्रीति सम होई, कोउ पितु भगत बचन मन कर्मा- सपनेहुँ जान न दूसर धर्मा
सो सुत प्रिय पितु प्रान समाना- जद्यपि सो सब भाँति अयाना, एहि बिधि जीव चराचर जेते- त्रिजग देव नर असुर समेते
अखिल बिस्व यह मोर उपाया- सब पर मोहि बराबरि दाया, तिन्ह महँ जो परिहरि मद माया- भजै मोहि मन बच अरू काया
पुरूष नपुंसक नारि वा जीव चराचर कोइ, सर्ब भाव भज कपट तजि मोहि परम प्रिय सोइ
मन क्रम बचन जनित अघ जाई- सुनहिं जे कथा श्रवन मन लाई
तीर्थाटन साधन समुदाई-जोग बिराग ग्यान निपुनाई
नाना कर्म धर्म ब्रत दाना-संजम दम जप तप मख नाना
भूत दया द्विज गुर सेवकाई बिद्या बिनय बिबेक बड़ाई
जहँ लगि साधन बेद बखानी- सब कर फल हरि भगति भवानी
सो रघुनाथ भगति श्रुति गाई- राम कृपाँ काहूँ एक पाई
मुनि दुर्लभ हरि भगति नर पावहिं बिनहिं प्रयास
जे यह कथा निरंतर सुनहिं मानि बिस्वास
Lord and his version for ultimate welfare of devotees_
सुनहु राम कर सहज सुभाऊ-जन अभिमान न राखहिं काऊ, संसृत मूल सूलप्रद नाना- सकल सोक दायक अभिमाना
ताते करहिं कृपानिधि दूरी- सेवक पर ममता अति भूरी, जिमि सिसु तन ब्रन होइ गोसाई- मातु चिराव कठिन की नाई
जदपि प्रथम दुख पावइ रोवइ बाल अधीर, ब्याधि नास हित जननी गनति न सो सिसु पीर
तिमि रघुपति निज दासकर हरहिं मान हित लागि, तुलसिदास ऐसे प्रभुहि कस न भजहु भ्रम त्यागि
Features of men that is dear to lord_
कोमलचित दीनन्ह पर दाया
मन बच क्रम मम भगति अमाया
सबहि मानप्रद आपु अमानी
भरत प्रान सम मम ते प्रानी
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Brahmin
ब्राह्मण
मन क्रम बचन कपट तजि जो कर भूसुर सेव { ब्राह्मण }
मोहि समेत बिरंचि सिव बस ताकें सब देव
सापत ताड़त परुष कहंता बिप्र पूज्य अस गावहिं संता
पूजिअ बिप्र सील गुन हीना सूद्र न गुन गन ग्यान प्रबीना
भगति कि साधन कहउँ बखानी
सुगम पंथ मोहि पावहिं प्रानी
He who without guile in thought, word and deed service the Brahmans that very gods of earth, wins over Brahma, Shiv, my self, and all other divinities,
A Brahman, even though he curses you, beat you, or speaks harsh words to you, is still worthy of adoration, so declare the saints,
A brahman must be respected, though lacking in amiability and virtue, NOT A SUDRA, though possessing a host of virtues and rich in knowledge,
Lord Rama instructed Kabandha in his own cult that cult of devotion and was delighted at heart to see his devotion to his feet, Having regained his original form that of Gandharva by the grace of Sri Rama he bowed his head to the lotus feet of Sri Rama and ascended to heaven,
प्रथमहिं बिप्र { ब्राह्मण }चरन अति प्रीती
At its first, love for the lotus feet of a holy brahman is the path to Sri Rama,
Birth in the garb of a Brahman is a unique truth in cult with celestial light and it may help fellow beings even out of proportion in their task on the journey
Brahman is not a cast but an inherent cult of soul at the threshold of Brahma
Brahman keeps an edge over saints
And if a Brahman in the garb of a saint with holy truth is like anything on the sphere of life to achieve best out of self that for self and the fellow beings
Birth as a Brahman is a rarest foot for Atman, even gods pine for,
Birth as a Brahman and life in a cult with truth is a gateway to final beatitude,
Birth as a Brahman but life in the truth of delusion as wicked means man has exchanged wish yielding precious gem in barter with pebbles of the world and resultant is drown alone,
Holy Brahman is adorable
Holy Brahman is adorable
Holy Brahman is adorable
Holy Brahman is adorable
Holy Brahman is adorable
Without being a Brahman it is truly hard to reach Sri Rama
Without being a Brahman it is as tough as anything to reach Sri Hari Vishnu
The birth of Brahman is mystic in itself, his truth is churned twice in the garb of that embryo, first in the material phase then at the threshold of release with Celestial Sanskar in garb itself before touching the air on the planet with a whisper in ear unto cult of being Brahman
Holy Brahman is adorable
Holy Brahman is adorable
Holy Brahman is adorable
Holy Brahman is adorable
Holy Brahman is adorable
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GNOSIS____
Gnosis is difficult to attain and beset with numerous obstacles, the path is rugged and there is no solid ground for the mind to rest upon, scarcely one attains it after a hard struggle, yet, lacking in devotion, the man fails to win over,
Eternal Atman that knowledge incarnate
Request_
सीता अनुज समेत प्रभु नील जलद तनु स्याम
मम हियँ बसहु निरंतर सगुनरुप श्रीराम
बार बार बर मागउँ हरषि देहु श्रीरंग
पद सरोज अनपायनी भगति सदा सतसंग
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परमानंद कृपायतन मन परिपूरन काम
प्रेम भगति अनपायनी देहु हमहि श्रीराम
Humble submission_
मो सम दीन न दीन हित तुम्ह समान रघुबीर
अस बिचारि रघुबंस मनि हरहु बिषम भव भीर
कामिहि नारि पिआरि जिमि लोभहि प्रिय जिमि दाम
तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम
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